Gwalior’s Mata Mandir: आदिशक्ति की आस्था का केंद्र हैं ग्‍वालियर की मांढरेवाली माता, सातऊ की शीतला व नहर वाली माता

रियासत कालीन मांढरे की माता व सातऊ की शीतला माता व मरी माता मंदिर नगर में प्रमुख रूप से आस्था का केंद्र हैं। नवरात्रि शुरू होने में अभी पांच दिन का समय हैं। इन मंदिरों में नवरात्रि की तैयारियां शुरू हो गईं हैं।

रियासत कालीन मांढरे की माता व सातऊ की शीतला माता व मरी माता मंदिर नगर में प्रमुख रूप से आस्था का केंद्र हैं। नवरात्रि शुरू होने में अभी पांच दिन का समय हैं। इन मंदिरों में नवरात्रि की तैयारियां शुरू हो गईं हैं। इन देवी मंदिरों में शारदीय नवरात्रि पर उत्सव व मेला जैसे माहौल रहता है। मांढरे की माता को सिंधिया राजघराने की कुलदेवी के रूप में मान्यता है। राजपरिवार कोई शुभ कार्य करने से पहले मांढरे की माता की चौखट पर शीश नवाकर आशीर्वाद नहीं भूलते हैं। यहां शरदीय व चैत्र की नवरात्रि पर मेला लगता है।

हर भक्त की मनोकमना पूर्ण करती हैं मांढरे की माता

केंपू स्थित पहाड़िया पर महिषासुर मर्दिनी रूपी माता का मंदिर हैं। मांढरे की माता के रूप में अंचल में ही नहीं पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध हैं। पहाड़ी पर मंदिर होने के कारण इस पहाड़ी का नाम भी मांढरे की पहाड़ी है। लगभग 100 सीढ़ियां चढ़कर श्रद्धालु मंदिर में दर्शन करने के लिये पहुंचते हैं। मांढरे की माता का निर्माण लगभग सवा सौ साल से पहले तत्कालीन ग्वालियर रियासत के महाराज जयाजीराव सिंधिया ने कराया था। बताया जाता है कि आनंदराव मांढरे सिंधिया की सेना में कर्नल पद पर कार्यरत थे। उन्हीं के अनुरोध पर राजपरिवार की कुलदेवी का मंदिर का निर्माण कराया था। आज भी उन्ही का परिवार इस मंदिर की पूजा-अर्चना का दायित्व संभालता है। विजयदशमी पर सिंधिया राजपरिवार का मुखिया शमी पूजन के लिये आते हैं। इसके साथ ही मंदिर को पहाड़ी पर इसलिये बनाया था कि ताकि राजपरिवार महल से ही प्रतिदिन कुलदेवी के दर्शन कर सकें। महल दुरबीन लगी हैं। जो कि सीधे मंदिर के गर्भगृह की सीध में हैं। महल से दूरबीन के माध्यम से देवी के दर्शन किये जा सकते हैं। मंदिर में आने वाले भक्तों का कहना है कि देवी मां हर भक्त की मनोकमना पूर्ण करती हैं।

शीतला माता मंदिर मन्नत पूरी होने पर पीतल के घंटे चढ़ाये जाते हैं

जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर की दूरी पर सातऊ की शीतला माता का मंदिर है। सातऊ की शीतला मंदिर अंचल के गुर्जर समाज की अगाध श्रद्धा है। बताया जाता है कि शीतला माता के मंदिर का निर्माण 1669 में कराया गया था। इस मंदिर से बागियों(डकैतों) की भी आस्था रहती थी। पांच दशक पूर्व तक मंदिर बीहड़ में होने के कारण मंदिर 70 से 80 के दशक में डकैत भी मन्नत पूरी होेने पर घंटे चढ़ाने के लिए आते थे। यहां प्रचलित किदवंती के अनुसार माता के पहले भक्त गजाधर मंदिर के पास ही बसे सातऊ गांव में रहते थे। वे गाय के दूध से नियमित रूप से भिंड जिले की गोहद तहसील के खरौआ गांव के प्राचीन देवी मंदिर अभिषेक करते थे। एक दिन देवी ने उन्हें दर्शन देकर अपने साथ चलने को कहा। मां की आज्ञा पर वह सातऊ गांव आ गये। यहां उन्होंने देवी का आहवान किया। देवी प्रकट हो गईं। और उसी जंगल में मंदिर बनाने के लिए कहकर माता एक स्थान पर विराजित हो गईं, उसी स्थान पर भव्य देवी मंदिर हैं। अंचल के लोग चैत्र की नवरात्रि पर पैदल दर्शन करने के लिये आते हैं। नवरात्रि के अलावा प्रत्येक सोमवार को श्रद्धालु आते हैं। यहां सत्यनारायण की कथा कराने का भी महत्व है।

नाका चंद्रवदनी पर नहरवाली (बाघेश्वरी) माता का मंदिर है। इस मंदिर के पास से 120 फीट चौड़ी नहर स्टेटकाल के समय निकली थी। इस नहर में पहले हमेशा पानी बहता था। इसके चलते बाघेश्वरी माता का नाम भी नहरवाली माता पड़ गया। लेकिन वर्तमान समय में यह नहर पूरी तरह से गायब हो चुकी हैं यहां पर बचा है तो मात्र 5 फीट चौड़ा नाला। दशकों पहले वह इस नहर में नहाया करते थे। साथ ही यह हमेशा चलती थी। इसमें उतरने के लिए सीढियां तक बनी हुई थीं। नहर वाली माता की नगर में काफी मान्यता है। किदवंती है कि इस मंदिर का निर्माण लगगभ 110 साल पहले वंशवृद्धि की मान्यता पूरी होने पर रामनारायण सेठ ने कराया था। शरदीय व चैत्र नवरात्रि पर जो श्रद्धालु मांढरे की माता के मंदिर दर्शन करने के लिए जाता है, वह नहर वाली माता के भी दर्शन करने के लिये जाता है। श्रद्धालुओं की मान्यता हैं कि यह दर्शन करने वाले हर भक्त की मनोकमना पूर्ण होती है।

 

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