Navratra Pooja 2020 : मां दुर्गा के नौ रूप दृढ़ता, ब्रह्मचर्य, जागृति, निष्कपटता, त्याग, ज्ञान, निर्भयता, सेवा, धैर्य का प्रतीक हैं
मार्कण्डेय पुराण के दुर्गा सप्तशती में जगदम्बिके दुर्गा का आह्वान करते हुए कहा गया है कि महादेवी की नवधाशक्ति जब महाशक्ति का स्वरूप धारण करती है, उस काल को नवरात्र कहा जाता है। ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम् ॥
मार्कण्डेय पुराण के दुर्गा सप्तशती में जगदम्बिके दुर्गा का आह्वान करते हुए कहा गया है कि महादेवी की नवधाशक्ति जब महाशक्ति का स्वरूप धारण करती है, उस काल को नवरात्र कहा जाता है। ज्योतिषाचार्य सौरभ दुबे ने बताया, ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम् ॥ ( नवः शक्तिभिः संयुक्तं नवरात्रं तदुच्यते) नवरात्र भारतीय संस्कृति का उदात्त पक्ष है, जिसे अपराजेय भक्ति, जीवन शक्ति एवं अप्रतिम अनुरक्ति हेतु श्रद्धा भाव से निष्ठा पूर्वक मनाने की परंपरा है। इसी से कहा जाता है कि नवरात्र पर्व समृद्धि, आत्मोद्वार, संवर्धन का द्वार है, जो अनीति, अन्याय का विरोध करने की दृष्टि प्रदान करता है, तभी तो अंबे के अवतरण की अवधारणा अन्याय के उन्मूलन से संबंध है।
दुर्गा सप्तशती में मां के त्रिकोणात्मक चरित्र का संदर्भ मिलता है। विष्णु के योगनिद्रा रूपी महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती का साधक इसकी आराधना करते हैं। नवरात्र में दुर्गा की पूजा उनके नौ रूपों (शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री) में। प्रतिदिन एक-एक रूप की उपासना की जाती है, जो क्रमशः दृढ़ता, ब्रह्मचर्य, जागृति, निष्कपटता, त्याग, ज्ञान, निर्भयता, सेवा, धैर्य का प्रतीक है। भिन्न रूप में होकर भी वह एक ही है।
नवरात्र में दो शब्द नव+रात्र है, ये दोनों ही महत्वपूर्ण है। अतः इसका आध्यात्मिक रहस्य जटिल तथा गूढ़ है। इसमें नौ रात्रियां सम्मिलित हैं। संस्कृत में रात्रि शब्द से आशय उस समय से होता है, जो प्राणी को मानसिक, भौतिक तथा परलौकिक बाधाओं से मुक्त कराकर मनसा-वाचा-कर्मण विश्राम प्रदान करें तथा जीवन को मानसिक शारीरिक तथा आत्मिक शक्ति से आप्लावित करें। निस्संदेह यह शांति प्राप्त करने हेतु अध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक तत्वों की उपस्थिति अपरिहार्य है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रत्येक संवत्सर, काल का मूर्तरूप होता है। आध्यात्मिक दृष्टि से प्रत्येक संवत्सर में चार संक्रांति काल (मेष, कर्क, तुला व मकर) अति महत्वपूर्ण है, जो कालपुरुष के सिर, पांव तथा दो भुजाएं हैं, इन्हीं चारों के संयोग से ब्रह्मांड में अदृश्य रूप से उस स्वास्तिक का निर्माण होता है, जो प्राणी जगत के कल्याण का मूल है। इस विशिष्ट काल में शक्ति का बाहुल्य रहता है। अतः थोड़ी साधना से ही साधक को अधिक शक्ति की प्राप्ति होती है। यद्यपि प्रत्येक संवत्सर में सम्यक् रूप से चार नवरात्र, चंद्रमास के अनुसार प्रतिष्ठित है, नवरात्र, चैत्र तथा ऊर्जा मास नाम से शारदीय नवरात्र आश्विन, परंपरानुसार सर्वाधिक प्रचलित है। मधु एवं ऊर्ज दोनों ही शक्ति के पर्याय हैं। इसी से हमारे ऋषियों ने इन सर्वोत्तम काल को नवरात्र कहा है और शक्ति आराधना के लिए सर्वोत्तम कहा है।