Indore News: धार का फड़के स्टुडियो, जहां प्रतिमाएं ऐसी जो सजीव होने का कराती हैं आभास
Indore News: होलकर राजपरिवार के सदस्य हों या धार रियासत के महाराज, स्वामी विवेकानंद, गुरुनानकदेव हों या नाना साहेब तराणेकर। इन सबकी बनी प्रतिमाएं जो सजीव होने का आभास करवाती हों ऐसा हुनर था रघुनाथ फड़के के हाथों में।
धार रियासत के महाराज आनंदराव पंवार अपने पिता तुल्य राजपुरोहित केशवराव पुराणिक के निधन से इतने दुखी हुए कि एक सप्ताह तक राजसभा नहीं गए। राजा को दुखी देखकर ख्यात मूर्तिकार रघुनाथ कृष्ण फड़के ने राजपुरोहित की ऐसी मूर्ति बनाकर राजसभा में रख दी जो पहली नजर में देखने पर असली होने का आभास करवा रही थी। आनंदराव जब सभा में पहुंचे तो अपने गुरु की ऐसी सजीव प्रतिमा देखकर चौंक गए।
सजीव मूर्तिकला से चमत्कृत होने वाली दूसरी शख्सियत थे इंदौर के सर सेठ हुकुमचंद। फड़के ने उनकी जो प्रतिमा बनाई थी वह तत्कालीन समय से दस वर्ष पूर्व की उम्र की थी। होलकर राजपरिवार के सदस्य हों या धार रियासत के महाराज, स्वामी विवेकानंद, गुरुनानकदेव हों या नाना साहेब तराणेकर। इन सबकी बनी प्रतिमाएं जो सजीव होने का आभास करवाती हों ऐसा हुनर था रघुनाथ फड़के के हाथों में। 89 साल बाद भी उनके द्वारा तैयार प्रतिमाएं आज भी लोगों को दांतों तले अंगुली दबाने पर विवश कर देती हैं।
इन प्रतिमाओं को देखना हो तो धार का फड़के स्टूडियो एकमात्र स्थान है। 1930 में मुुंबई के वसई से फड़के को धार के महाराज उदाजीराव ने अपनी मां लक्ष्मीबाई की प्रतिमा बनाने के लिए बुलाया था। धार की आबोहवा फड़के को इतनी पसंद आई कि वह लौटकर वसई नहीं गए और 1933 में धार में स्टूडियो बनाकर मूर्तिकला का प्रशिक्षण दूसरों को देने लगे। उनके शिष्य शंकर राव दवे, दिनकर राव दवे, राजाभाऊ मेहुणकर और श्रीधर मेहुणकर ने फड़के की परंपरा को आगे बढ़ाया। आज भी उसी परंपरा का निर्वाहन करते हुए प्रतिमाएं गढ़ी जा रही हैं।
वर्तमान में फड़के स्टूडियो के संचालन की जिम्मेदारी युवाओं के हाथ में है। इससे जुड़े मंगेश दवे बताते हैं कि यहां बनी प्रतिमाओं की एक खासियत यह भी है कि उनकी प्रतिकृति देश के विभिन्न् स्थानों पर लगी हैं। चाहे इंदौर के रीगल तिराहे पर लगी महात्मा गांधी की प्रतिमा हो या शास्त्री ब्रिज के समीप लगी लालबहादुर शास्त्री की प्रतिमा या फिर मुबंई की चौपाटी पर स्थापित बालगंगाधर तिलक की प्रतिमा ही क्यों न हो। इन्हें बनाते समय आंखो के साथ चेहरे की बारीक से बारीक मांसपेशियों को भी इतनी सफाई से उकेरा जाता है कि प्रतिमा असली होने का आभास कराती है। प्रतिमा की आंख में कंचे या रंग नहीं लगाया गया बावजूद वे उसके असल होने का प्रभाव छोड़ती है।
त्वचा पर झुर्रियां, कपडों की सिलवटें, शरीर की नसें इस तरह प्रतिमा पर बनाई जाती हैं कि यह देखने वाले को असल का आभास कराती है। मंगेश बताते हैं कि यहां वर्कशाप बनाने की भी योजना है ताकि दर्शक इन मूर्तियों को बनता हुआ देख सकें। कुछ मूर्तियां कल्पना के आधार पर भी बनाई गई है। इन्हें बनाने का उद्देश्य विद्यार्थियों को सिखाना था। यहां सिर्फ विशेष लोगों या महापुरुषों की ही नहीं बल्कि आम लोगों की भी प्रतिमाए हैं। दर्शक यहां प्रतिमाओं को देखने के साथ ही उनके जरिए इतिहास और कला से भी रूबरू हो सकते हैं।