1680 ई. में मुगल बादशाह औरंगज़ेब मेवाड़ पर हमला करने के लिए राजसमन्द झील किनारे पहुंचा। वह जिस तरह मेवाड़ में तबाही मचाता था, ये सोचकर महाराणा राजसिंह को लगा कि औरंगजेब राजसमन्द झील की पाल तुड़वा देगा।
महाराणा ने अपने राजपूत सर्दारों को अलग-अलग मेवाड़ी फौजी टुकड़ी के साथ राजसमन्द झील पर भेजा। मेवाड़ी फौज रास्ते में ही थी कि तभी बादशाही फौज में शामिल श्यामसिंह ने महाराणा को खत लिखा कि औरंगजेब को राजसमन्द बड़ा पसन्द आया है, इसलिए वह इसकी पाल नहीं तुड़ावेगा।
महाराणा ने सभी सर्दारों के नाम पत्र लिखकर उन्हें फौरन वापिस बुला लिया, लेकिन इसमें वणोल के आनन्दसिंह राठौड़ का नाम लिखना भूल गए।
दूसरे सब सर्दारों ने आनन्दसिंह राठौड़ को भी साथ में लौटने को कहा, तो आनन्दसिंह राठौड़ ने कहा कि “मैं जानता हूं कि मेरा नाम महाराणा सा ने भूल से नहीं लिखा, पर अब मेरा वापिस लौटना संभव नहीं, मैं अपने साथियों समेत यहीं मरूँगा”
नतीजतन आनन्दसिंह राठौड़ 100-200 बहादुर राजपूतों के साथ भिड़ गए हज़ारों मुगलों से और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।